भवदीय निवेदक "ज्योतिष सेवा सदन "झा शास्त्री "{मेरठ उत्तर प्रदेश }

"झा शास्त्री "मेरठ {उत्तर प्रदेश }

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

"पात्रता से ही लक्ष्मी स्थिर होती है ?"

           "पात्रता से ही लक्ष्मी स्थिर होती है ?"
मित्रप्रवर ,राम -राम ,नमस्कार ||
        लक्ष्मी के बिना जीवन अधूरा सा रहता है,इसके लिए हमलोग अथक परिश्रम भी करते हैं ,धर्म अधर्म का विचार भी नहीं कर पाते हैं-परन्तु यदि कुपात्रता से धन का संचय किया गया हो-तो "लक्ष्मी "हमें परित्याग करने में संकोच नहीं करती हैं -आइये हम आपको एक कथा सुनाते हैं,और कहाँ निवास नहीं करती है "लक्ष्मी "प्रकाश डालने की कोशिश भी करते हैं -शास्त्रोक्त [शास्त्रों से ]?
         अस्तु -श्रीमार्कंडेयपुराण-में एक कथा आती है क़ि शचिपति "इंद्र" दैत्येन्द्र जम्भ से पराजित होकर निराश हो गए | देवगुरु ने इंद्र को श्री विद्या के परमाचार्य "श्री द्त्त्तात्रेय "की शरण में जाने की सम्मति दी |जब इंद्र समेत सब देवता श्री दत्तात्रेय जी के आश्रम पर पहुंचे ,तब उन्होंने उन्हें कुछ विकृत वेषाव्स्था में साक्षात् भगवती लक्ष्मी के साथ आसीन देखा |उनकी प्रेरणा से देवताओं ने पुनः युद्ध छेड़ दिया और जब दैत्य उन्हें मारने लगे ,तब वे भागते हुए दत्तात्रेय जी के आश्रम पर पुनः पहुँच गए और पीछे से खदेड़ते हुए देते भी वहीँ जा पहुंचे| दैताय्गन वहां उनकी पत्नी भगवती ल्स्ख्मीी को देखकर अपने मनोवेग को न रोक सके और झट सब कुछ छोड़कर ,उस श्री को ही बलात एक पालकी में डालकर सर पर ढ़ोते हुएअपने वासस्थल को चल पड़े |  इस पर भगवान दत्तात्रेय ने देवताओं से कहा -"यह आप लोगों के लिए बड़े ही सौभाग्य की बात है ,क्योंकि ये लक्ष्मी इन दैत्यों के सात स्थानों को लांघकर आठवे स्थान [मस्तक ] पर पहुँच गयी है |सर पर पहुँचते ही ये तत्काल अपने आश्रय का परित्याग करके अन्यत्र चली जाती है ||
              शारडगधर पद्धति -६५७ में -के भावों को भी समझते हैं ---
"कुचैलिनम दन्तमलोपधारिनम  ब्रह्मशिनं निष्ठुर वाक्य भाषिनाम |
सूर्योदय हस्त्म्येअपी शयिनम विमुन्चती ,श्रीरपि चक्रपनिनम || 
      भाव -जिसके वस्त्र तथा दांत गंदे हैं ,जो बहुत खाता तथा निष्ठुर भाषण करता है,जो सुर्यास्त्काल में भी सोया रहता है,वह चाहे चक्रपाणी "विष्णु " ही क्यों न हो ,उसका लक्ष्मी परित्याग कर देती है |
           और भी कुछ शास्त्रकारों ने लिखा है ......
      परान्नम परवस्त्रं  च परयानम  परस्रीयह|
       पर वेस्वा निवासस्चा शंक्स्यापी श्रियः हरेत ||
  भाव -पराया अन्न ,दूसरे का वस्त्र,पराया यान [वाहन ],परायी स्त्री और परग्रिह्वास[दूसरों के घर में रहना ] ये "इंद्र "की स्री संपत्ति को भी हरण कर लेते हैं ||
          ब्र०-रंजनन -१६८ के अनुसार 
असुरराज भक्त प्रह्लाद ने एक ब्राहमण को अपना शील दान कर दिया |उसके कारण लक्ष्मी ने उन्हें -तत्काल छोड़ दिया ,तत्पश्चात अनेक प्रकार से प्रार्थना करने पर करुणामयी  लक्ष्मी ने साक्षात् दर्शन देकर उपदेश दिया कि-हे प्रह्लाद ! तेज ,धर्म,सत्य ,व्रत ,बल ,एवं शील आदि मानवी गुणों में मेरा निवास है |इन गुणों में शील अथवा चरित्र मुझे सबसे अधिक प्रिय है ,इस कारण मैं सच्चिल व्यक्ति के यहाँ रहना सबसे अधिक पसंद करती हूँ ||
          महा ० शा ०-१२४ के अनुसार ----
   दानवीर दैत्यराज "बलि " ने एकबार उच्छिष्ट भक्षण कर ब्राह्मणों का विरोध किया| श्री ने उसी समय बलि का घर छोड़ दिया | लक्ष्मीजी ने कहा चोरी ,दुर्वसन,अपवित्रता एवं अशांति से घृणा करती हूँ | इसी कारण आज में बलि का त्याग कर रही हूँ ,भले ही वह मेरा अत्यंत प्रिय है ||
     महा ०शन्ति ०२२५ के अनुसार -------
इसी प्रकार लक्ष्मीजी रुक्मिनिजी से कहती है ,कि हे सखे !निर्लज्ज ,कलहप्रिय ,निंदाप्रिय,मलिन ,अशांत एवं असावधान लोगों का मैं अतीव तिरस्कार करतई हूँ ,तथा इनमें से एक भी दुर्गुण व्याप्त होने पर मैं उस व्यक्ति का त्याग कर देती हूँ ||
महा ०अनु ० ११ के अनुसार ------
       अनपगामिनी सुस्थिर लक्ष्मी के लिए --शर्दादी तिलक --८/१६१ में निर्देश है 
               भुयसीम श्रीयमाकन्क्षण सत्यवादी भवेत् सदा |
                प्रत्यगाशामुखोश्रीयत स्मित पुव प्रियं वदेत ||
  अर्थात -अधिक श्री [लक्षी ] की कामना करने वाले व्यक्ति को सदा सत्यवादी होना चाहिए ,पश्चिम मुह भोजन तथा हसकर मधुर भाषण करना चाहिए ||
   भवदीय निवेदक "ज्योतिष सेवा सदन "झा शास्त्री" मेरठ |
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