भवदीय निवेदक "ज्योतिष सेवा सदन "झा शास्त्री "{मेरठ उत्तर प्रदेश }

"झा शास्त्री "मेरठ {उत्तर प्रदेश }

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

" हम हैं तो एक किन्तु रूप अनेक हैं !"

               " हम हैं तो एक किन्तु रूप अनेक हैं !"
"एकोहम वहु स्यामः"=इस उक्ति से यह प्रतीत होता है-हम एक हैं हमारे रूप अनंत हैं [श्री कृष्ण ] -मित्र बन्धु -संसार में विधाता की नजर में भी हम एक ही हैं -ब्रह्म्नोस्य मुखमासीद -ये जो मुख है -वो ब्रह्मण है और मुख तो सबके पास होता है || वाहू राजन्यः-ये जो भुजाएं हैं वो क्षत्रिय हैं [राजा ] और प्रत्येक शरीर में भुजाएं  होती हैं -इसका अर्थ है हमारे शरीर का राजा हाथ हैं || कृतः ऊरू तद वैस्यः-और ये जो उदर [पेट ] है वो वैश्य है -अर्थात उदर सबके पास होता है || पद भ्याम भूमिर दिशः=और ये जो चरण हैं [पैर ] वो शुद्र हैं और चरण तो सबके पास होते हैं || परमात्मा ने हमें सभी कलाओं से युक्त कीये हैं ,फिर भी हम उस बात को न समझें त दोष हमारा है न कि शास्त्रकारों [शस्त्रों ] का-हमलोगों ने सत्य को असत्य में बदल दिया-आइये देखते हैं -शरीर किसीका भी हो -उसका मुख ब्राह्मण होता है,उस शरीर की भुजाएं क्षत्रिय होती हैं ,उदर -वैश्य होता है ,एवं चरण शुद्र होते हैं ,यदि शरीर से एक भी अंग को निकाल दिया जाये तो-शरीर ही नष्ट हो जायेगा || जिस प्रकार से इस शरीर के चारों अंग हैं-इसी प्रकार से कर्म भी करने पड़ते हैं-मुख में सुन्दर वस्तु डालने से शरीर के सभी अंग सुन्दर बनेंगें [जो ब्रह्माण बनेंगें उनको सभी के हित के लिये व्रत ,जप , तप,नियम ,स्वाध्याय करने पड़ेंगें -तभी तो इस शरीर रूपी समाज का विकास होगा || क्षत्रिय -बनने के लिये-हमारी भुजाओं में इतनी ताकत तो हो जो सबकी  रक्षा कर सके चाहे अपनी जान चली जाये [सबकी रखा के लिये ]-वैश्य -बनने के लिये भोजन की व्यवस्था सबकी तो करनी पड़ेगी, तभी तो शरीर रूपी जो वैश्य है वो जीवित रह पायेगा || शुद्र -का अर्थ है सेवा का भाव -हमारी टाँगें तो इतनी मजबूत हों की सम्पूर्ण शरीर का वजन उठा सके ,यदि इस शरीर से चरण हटा दिया जाएँ तो हम कुछ भी नहीं कर पायेंगें ||
"जन्मना जायते द्विजः ,कर्मना जायते शूद्रः -जन्म से सभी द्वीज होते हैं कर्मसे हम स्वयं शुद्र बन जाते हैं ||भाव -जब समाज में हैं तो समाजिकता का निर्माण भी हमें ही करनी चाहिए, हमें अपने -अपने कार्जों के प्रति सजग रहना ,जब हम अपना कर्म नहीं करेंगें ,तो फिर यह भी नहीं कहेंगें | जब हमने अपने -अपने कर्मक्षेत्र का चयन अपने अनुसार करते हैं तो बदलाव जरुर आएगा किन्तु वास्तविकता यही है चोट अपने शरीर को ही लगती है ,गलती हमही करते हैं दोष पूर्वजों को देते हैं,सब एक हैं,कर्म अलग -अलग हैं,||
भवदीय निवेदक "झा शास्त्री"
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