"सूर्य का वैभव एवं ज्योतिष विकास "
"सूर्य को ही वैभव कल्प तरु माना जाता है| ऋतुओं का जन्मदाता भी सूर्य ही है ,तथा वायु का पिता एवं जंक भी है ,इनकी कोमल रश्मियों से रस ,सुगंधी ,और माधुर्य की भी उत्पत्ति होती है |भगवान सूर्य के ही चारो ओर पृथ्वी भ्रमण करती है | पृथ्वी एक विशाल अन्तरिक्ष- यान है | यह अन्तरिक्ष में से एक अति वेगवान गति से संघर्षण करती है -अर्थात अपने शानदार पिंड पर हम सबको धारण किये हुए -जब यह पृथ्वी अन्तरिक्ष में चक्कर लगाती है ,तब यह सूर्य के चारो ओर वर्षावधिक दीर्घवृत्त गृह पथ में घूमती है,किन्तु सब समय सूर्य से यह एक ही सामान अंतर पर नहीं रहती है | कई बार यह अत्यंत निकट होती है तो अनेक बार सूर्य से बहुत दूर अन्तरिक्ष में भटकने को चली जाती है |[वास्तव में सूर्य नहीं चलता -पृथ्वी चलती है-किन्तु हमलोग समझते हैं कि सूर्य ही भरमन करते हैं पृथ्वी का ] जबकि चंद्रमा -पृथ्वी के चारो ओर भ्रमण करता है |चंद्रमा के प्रभाव और प्रकाश से पृथ्वी की सारी वनस्पतियाँ उत्पन्न होतीं हैं ,समस्त जड़ी -बूटी ,पेड़ पौधे ,सभी चंद्रमा से ही पोषण प्राप्त करते हैं | इसी प्रकार चंद्रमा को -ओषधिपति -कहा जाता है |समुद्र में ज्वार भाटे का कारण भी चंद्रमा ही है |इसी कारण पृथ्वीवासी चंद्रमा से सदा प्रभावित होते रहते हैं ||सूर्य की पृथ्वी से दूरी-९ करोड़ ३० लाख मील-एवं सूर्य का व्यास -८ लाख ६५ हजार मील है |
ज्योतिष शास्त्री -सूर्य को तारा की संज्ञा देते है -तारा उसे कहते हैं -जिसमें वास्तविक गति उपलब्ध न हो वो स्थिर प्रायः हो | ज्योतिष के विद्वानों ने सूर्य को "काल" भी कहा है ,"काल का अर्थ है -"युग "शब्द की विवेचना ज्योतिष के अनेक ग्रंथों में हुई है |वेदत्रयी -संहिता काल में -चार युगों की कल्पना है और उनकी सृष्टि -दिव्या दिव्य भवों के के अधर पर की गयी है -"कलि शयनो भवति सज्जी हानस्तु द्वापरह |
उत्तिष्ठ सत्रेता भवति ,कृतं संपद्यते च्रंश्च्रे ||
भाव -सोने वाला युग -को कलि कहते हैं ||
बैठने वाला युग -को द्वापर कहते हैं ||
उठने वाला युग को त्रेता कहते हैं ||
घुमने वाला युग को कृत कहते हैं ||
भवदीय निवेदक "झा शास्त्री " मेरठ [उप ]
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