"सफलता का सोपान आपही हैं ?"
"आत्म स्थानम मंत्र द्रव्य देव शुद्धिस्तु |
पंचमी यावनय कुरुते देवी तस्य देवार्चानम कुतः ||
मानव शरीर में स्वयं शक्ति का निवास होता है | तंत्र -मंत्र -यन्त्र तो माध्यम है ,सुप्त शक्ति को जागृत करने के लिए और बनाये रखने के लिए | ईस्वर में श्रद्धा और विस्वास के बिना कोई साधना सफल नहीं होती है |
अस्तु -तंत्र साधना के लिए पांच शुद्धियाँ अनिवार्य हैं -[१]-भाव शुद्धि [२]-देह शुद्धि [३]-स्थान शुद्धि [४]-द्रव्य शुद्धि [५]-और -मंत्र शुद्धि |---
-पुरश्चरण के बिना कोई भी मंत्र फलदायी नहीं हो सकता है | -[जिस मंत्र के जितने अक्षर होते हैं -उतने लाख मंत्र के जापों को -पुरश्चरण कहते हैं | पुरश्चरण के बाद मंत्र कामधेनू के सामान सभी सिद्धियों को देने वाले बन जाते हैं | चरण के पांच अंग हैं-जप ,हवन, तर्पण ,मार्जन और ब्राहमण भोजन |
यदि किसी साधक का पर्योग एक बार में सफल नहीं होता -तो शांति पाठ करके पुनः करना चाहिए |असफलता के कई कारण हो सकते हैं | अशुद्ध मन्त्र ,मंत्र का अशुद्ध उच्चारण ,साधना में विघ्न ,अखंड दीप का बुझना,ब्रहमचर्य का खंडन,साधक द्वारा मंत्र साधना के नियमों का पूर्ण रूप से पालन न करना और -गुरु ,मंत्र देवता में श्रद्धा और विस्वास का न होना | इसके आलावा देव शुद्धि न होना भी एक कारण होता है | देव शुद्धि के लिए गुरु की आज्ञानुसार पाठ करना चाहिए ||मंत्रोचारण,जप साधना के लिए कार्ज -भेद -अनुसार समय दिशा ,मौसम,स्थान ,पहनेवाले वस्त्रों व् पूजा करने के आसन के रंग में भी अंतर होता है | भोग लगाने के सामन में भी अंतर होता है |कई बार मंत्र एक होता है ,परन्तु मंत्र के पल्लव में फर्क होता है ,कार्यानुसार जिस भावना से मंत्रोंचारण किया जय ,उसका फल उसी रूप में मिलता है | मंत्र का उच्चारण अगर ग्यारह ,इक्कीस या इक्यावन हजार बार बताया गया हो और निश्चित अवधि में पूरा करने पर ही फल प्राप्ति होती है |यह बात और है कि साधक अपनी सुविधा और जरुरत के अनुसार जप की संख्या में ग्यारह इक्कीस ,इकतालीस दिनों में विभाजित कर लें | इस सबके बावयूद एक बात ध्यान रखने योग्य है कि गुरु कृपा ,गुरु निर्देश ,गुरु नियमों का पालन ,गुरु आगया सर्वोपरि मानकर साधक चले ,तो उसकी सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है ||
-अक्षय -त्रीतिया" हो या कोई और उत्सव-न क्षयः अक्षयः सा एक तृतीया -जिसका नाश नहीं होता है ,जो अमिट होता है -तो ध्यान दें ये धर्म भी हो सकता है और अधर्म भी -ये तो आपके कर्म के ऊपर ही निर्भर करेगा ||
भवदीय निवेदक "झा शास्त्री " मेरठ |
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