भवदीय निवेदक "ज्योतिष सेवा सदन "झा शास्त्री "{मेरठ उत्तर प्रदेश }

"झा शास्त्री "मेरठ {उत्तर प्रदेश }

शनिवार, 4 जून 2011

"अर्पण या समर्पण ,किन्तु है ये घमर्थन?"

        "अर्पण या समर्पण ,किन्तु है ये घमर्थन?"
     मित्र प्रवर ,राम -राम,
                संसार की सभी वस्तुएं निरर्थक है ,ये हम सभी जानते हैं ,किन्तु जीने की "कला "सबकी अलग -अलग है | वर्तमान ही भूत एवं भविष्य बन जाते हैं ,और सभी जीव इन तमाम बातों को जानते हुए भी उलझते रहते हैं | हमारी आवशयकता के आगे सत्य भी असत्य सा प्रतीत होता है ||
        अर्पण =हमारा जीवन सुखमय कैसे हो इसके लिए हम बहुत से यत्न और प्रयत्न करते रहते हैं | इसके लिए हम -अपने अभिभावक ,मार्गदर्शक एवं ऊपर वाले के ऊपर अटूट आस्था रखते हैं ,उनके बताये हुए मार्ग पर चलते हैं और अपनी संतानों को चलने की प्रेरणा भी देते हैं || किन्तु ये जो हमारा अर्पण है ,वो वास्तविक रूप से अलग हो रहा है |जैसे - माता -पिता,भाई बंधुओं ,अभिभावोकों ,शिक्षक ,तथा गुरु के ऊपर यकीन न करके -उनके ऊपर यकीन कर लेते हैं ,जिनको हम जानते तक नहीं है -उनके विचार को हम सुविचार मानते हैं -जो हमारा हित [कल्याण ] कभी नहीं कर सकते हैं ||
        समर्पण =जब हम दूरदर्शन [टी, व़ी] चलचित्र [सिनेमा ] नेट -[जाल ] के आदि हो गए हैं ,तो निशचित ही मूल रूप को पहचानते हुए भी -वही राह अपनाते हैं जो दीखता तो उत्तम [अच्चा] है ,किन्तु है असत्य का प्रतीक -जैसे -किसी भी वस्तु का मूल रूप तो सत्य होता है -परन्तु परिवर्तन होने से नष्टकारी अर्थात वेकार हो जाता है |जैसे -गेहूं सत्य है किन्तु भोजन के लिए उसका परिवर्तन होता है -गेहूं से आटा एवं आटा से रोटी बनते ही उसका समय सिमिट हो जाता है| जब हम चलचित्र देखते हैं -तो ये बातें काल्पनिक है ये हम सभी जानते हैं -किन्तु -मानते उसे सत्य हैं | यही हमारा समर्पण हमें तो भ्रमित करता ही है ,समाज को भी इसी ओर
ले जा रहा है ||
      घमर्थन =हम अपने जीवन के मूल रूप को  पहचानते तो हैं ,किंतु उस पथ पर चलने की कोशिश नहीं करते हैं | माता -पिता से उत्तम शुभ चिन्तक ,गुरु से उत्तम मार्गदर्शक ,अपने भाई -बंधुओं से सुन्दर प्रेम , अपने पुरोहित से उत्तम पूजा ,अपने आराध्यदेव से उत्तम देव ,अपने घर से सुन्दर घर ,अपनी संस्कृति से सुन्दर व्यवहार ,अपनी पत्नी से सुदर पत्नी ,कोई नहीं है ||अर्थात -ये लड़ाई ,या झगडा की चीज नहीं है -ये आत्मा से स्वीकार करने की बात है ||
       भवदीय निवेदक "झा शास्त्री "मेरठ [भारत ]
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